03/02/2025 : मृतकों की संख्या अब भी रहस्य, बजट पर विशेषज्ञों की राय, ट्रम्प के टैरिफ वॉर पर कनाडा, मैक्सिको, चीन के जवाब, मोदी की चूक और कामयाबी, प्रयागराज और इलाहाबाद, जर्मनी में दक्षिणपंथ की दस्तक
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आज की सुर्खियां | 3 फरवरी 2025
मौतों के आंकड़े भ्रामक, झूंसी में 24 की मौत हुई?
भगदड़ की रात संगम पर सक्रिय 16 हजार मोबाइल का डेटा खंगाल रही यूपी पुलिस
“द वायर” में अंकित राज की रिपोर्ट कहती है कि महाकुंभ में भगदड़ के बाद उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा जारी किया गया मौतों का आंकड़ा भ्रामक है. क्योंकि कई मीडिया रिपोर्ट्स से अब यह साफ हो चुका है कि भगदड़ सिर्फ संगम नोज़ पर नहीं, बल्कि कई स्थानों पर हुई थी. सवाल यही है कि ढाई हजार से ज्यादा सीसीटीवी कैमरों और चप्पे-चप्पे पर सुरक्षाकर्मियों की तैनाती के बावजूद प्रशासन भगदड़ रोकने में असफल क्यों हुआ? कई सवालों का जवाब अभी तक नहीं मिला है. झूंसी में भगदड़ की जानकारी प्रशासन को नहीं थी तो भगदड़ स्थल पर हर तरफ बिखरे पड़े वस्त्रों, जूते-चप्पलों और अन्य वस्तुओं को ट्रालियों और ट्रकों में किसके आदेश पर हटवाया जा रहा था? झूंसी इलाके के प्रत्यक्षदर्शियों ने मीडिया को बताया है कि दूसरी भगदड़ में 24 श्रद्धालुओं की जान गई है. इस हिसाब से तो कुल मौतों का आंकड़ा 54 हो जाता है. उधर, उत्तरप्रदेश की पुलिस इस बात की जांच कर रही है कि कहीं महाकुंभ में मंगलवार-बुधवार की दरमियानी रात (29 जनवरी) हुई भगदड़ की घटना एक बड़ी साजिश का नतीजा तो नहीं थी. “डेक्कन हेराल्ड” में संजय पांडे की एक रिपोर्ट के अनुसार खुफिया तंत्र नौजवानों के उस समूह का पता लगाने में जुटा है, जिसने श्रद्धालुओं को जानबूझकर अपने आगे धकेल दिया था. इसके बाद ही भगदड़ शुरू हुई. यूपी पुलिस की स्पेशल टास्क फोर्स करीब 16 हजार ऐसे मोबाइल नंबरों का डेटा खंगाल रही है, जो भगदड़ वाली रात संगम नोज़ की लोकेशन पर सक्रिय थे. पुलिस को इस बारे में कुछ इनपुट मिले हैं. बता दें कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने तो शनिवार को ही कह दिया था कि भगदड़ की घटना सनातन धर्म के खिलाफ साजिश है.
प्रयागराज में सामने आई इलाहाबाद की इंसानियत
कुंभ में भगदड़ के बाद फंसे श्रद्धालुओं के लिए मुसलमानों ने खोले घर के दरवाजे, 25,000 से ज्यादा की मदद
मौनी अमावस्या के दिन जब महाकुम्भ में श्रद्धालु भगदड़ और भीड़ में फंस गये थे और प्रशासन ने लोगों को उनके हाल पर छोड़ दिया था, तब प्रयागराज के मुसलमानों ने शहर की मस्जिदों, दरगाहों, इमामबाड़ों और अपने घरों को मुश्किल में पड़े श्रद्धालुओं के लिए खोल दिया और उनका खयाल रखा. इस पर द न्यू इंडियन एक्सप्रेस के लिए नमिता वाजपेयी और दैनिक भास्कर के लिए फरहत खान ने मार्मिक रिपोर्ट की है.
खुल्दाबाद के महमूद ने कहा, “कुंभ से पहले साधु-संतों ने घोषणा की थी कि मेले में मुसलमानों को आने की अनुमति नहीं होगी. ईश्वर का करिश्मा देखिए. मेला खुद श्रद्धालुओं के रूप में मुस्लिम इलाकों में पहुंच गया.”
कश्मीर में फंसे सैलानियों के साथ भी ऐसा ही हुआ था. ‘दैनिक भास्कर’ के अनुसार, मुसलमानों ने 25-26 हजार से ज्यादा श्रद्धालुओं के लिए न सिर्फ नाश्ता, भोजन-पानी आदि की व्यवस्था की, बल्कि देर रात तक भंडारे का भी आयोजन किया. आराम के लिए रजाई, कंबल, तोसक-तकिया आदि के साथ-साथ चिकित्सा सुविधाएं भी मुहैया करवाईं. दरअसल, व्यवस्थाएं ध्वस्त हो गई थीं और क्षेत्र में प्रवेश पर रोक लगा दी गई थी. इस कारण जो श्रद्धालु जहां थे, वहीं फंस गए. नखास कोहना इलाके के इरशाद कहते हैं, ‘‘हमने उनके लिए इतना कुछ इसलिए किया, क्योंकि वे सभी प्रयागराज में मेहमान हैं.” चौक इलाके में पेशे से शिक्षक मसूद अहमद कहते हैं, “कुंभ में प्रयागराज में बहुत बड़ी भीड़ होती है. उस रात जब ज़रूरतमंदों की मदद की बात आई तो हम सबने मिलकर काम किया. हिंदू भाई अपने धार्मिक कर्तव्यों का पालन कर रहे थे और हम मानवता के नाते उनके साथ थे. हमारा एक ही उद्देश्य था, दूर-दूर से आए लोगों की परेशानी कम करना. हमने स्टेशन पर पहुंचने वाले बुजुर्गों की मदद करने की कोशिश की. हम बस यही चाहते हैं कि जो लोग यहां आए हैं, वे मानवता की भावना से ओत-प्रोत होकर वापस जाएं.”
बजट 2025
क्या कह रहे हैं स्वतंत्र विश्लेषक बजट के बारे में
स्टॉक मार्केट चुप क्यों रहा
इकोनॉमिक टाइम्स में स्वामीनाथन अंकलेसरिया अय्यर ने आश्चर्य जताया कि ऐसा कैसे है कि मध्यवर्ग को टैक्स छूट देने के बाद भी स्टॉक मार्केट में कोई सकारात्मक हरकत नहीं दिखलाई दी. अय्यर का यह भी कहना है कि ट्रम्प जिस तरह से दुनिया के बाज़ार की टैरिफ के नाम पर तोड़मरोड़ करेंगे, उसका वज़न निर्मला सीतारमन के बजट भाषण से ज्यादा है. उन्होंने कहा कि इस बजट से तुरंत निवेशकों की दिलचस्पी नहीं जागेगी.
बेरोजगारों को लटकता छोड़ दिया
ब्लूमबर्ग में डॉन स्ट्राँफ ने कहा है कि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने बजट में मध्यम वर्ग को करों में बड़ी राहत दी है ताकि वैश्विक चुनौतियों से अर्थव्यवस्था को बचाया जा सके, लेकिन लाखों बेरोजगारों के लिए कोई सीधा समर्थन नहीं दिया, जिन्होंने पिछले साल उनके खिलाफ मतदान किया था. हालांकि, बजट में रोजगार सृजन या बेरोजगार भारतीयों के लिए वित्तीय सहायता देने के कार्यक्रमों का कोई उल्लेख नहीं था. पिछले जुलाई के बजट में, मोदी सरकार ने नए रोजगार सृजन के लिए 2 खरब रुपये खर्च करने की बात कही थी. कई अर्थशास्त्रियों का मानना है कि टैक्स कटौती से उपभोक्ता विश्वास बढ़ेगा, जबकि अन्य का कहना है कि यह टिकाऊ नहीं है. अधिकांश भारतीय श्रमिक अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में काम करते हैं और कोई कर नहीं देते हैं. सीतारमण ने छोटे और मध्यम व्यवसायों को बढ़ावा देने की बात कही, लेकिन इससे कितने लोगों को रोजगार मिलेगा, यह देखना बाकी है. मोदी सरकार उपभोक्ता वर्ग को बढ़ावा देने की कोशिश कर रही है. आर्थिक विकास धीमा हो गया है, इसलिए सरकार के लिए कुछ कदम उठाना ज़रूरी है.
कृषि पर खर्च कम किया
रूरल वॉयस में हरवीर सिंह ने अपनी संपादकीय टिप्पणी में लिखा है वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने नये वित्त वर्ष 2025-26 का बजट पेश करते हुए विकसित भारत के सपने को साकार करने के लिए कृषि पर जोर देने का दावा किया और कहा कि यह अर्थव्यवस्था का यह पहला इंजन है लेकिन जब इस इंजन में संसाधनों के आवंटन का ईंधन डालने की बात आई तो वह कंजूसी कर गईं. कृषि मंत्रालय का कुल बजट प्रावधान पिछले साल के मुकाबले कम है. कृषि एवं किसान मंत्रालय के लिए वर्ष 2025-26 में 137756 करोड़ रुपये के बजट का प्रावधान है जो चालू वित्त वर्ष के संशोधित अनुमान 141351 करोड़ रुपये से करीब 3595 करोड़ रुपये कम है. अधिकांश योजनाओं में आवंटन लगभग पिछले साल के बराबर ही रखा गया है. कुछ योजनाओं में जरूर आवंटन अधिक किया गया है लेकिन यह बहुत बड़ा आवंटन नहीं है.
टैक्स गरीब ज्यादा दे रहे हैं
डॉ रतिन रॉय के अनुसार, भारत में आयकर देने वाले सभी लोग आबादी के सबसे धनी वर्ग से संबंधित हैं, इसलिए उन्हें "मध्य वर्ग" कहना भ्रामक है. सरकार ने टैक्स में कटौती करने का फैसला किया है, जिससे राष्ट्रीय खजाने को 1 लाख करोड़ रुपये का नुकसान होगा. हालांकि, इस बदलाव से कर प्रणाली और अधिक प्रतिगामी हो गई है, और अब यह पहले से कहीं अधिक अमीरों का पक्ष लेती है. पहले, एक व्यक्ति को आयकर देना शुरू करने के लिए राष्ट्रीय प्रति व्यक्ति आय का 3.5 गुना कमाना होता था. अब, उन्हें प्रति व्यक्ति आय का छह गुना कमाने की आवश्यकता है. इसका मतलब है कि केवल शीर्ष 5-10% आबादी ही आयकर देने के लिए उत्तरदायी है, जिससे धनी लोगों पर कर का बोझ और कम हो गया है. वहीं, वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) जैसे अप्रत्यक्ष कर अभी भी ज्यादा हैं. चूंकि अमीर और गरीब दोनों समान रूप से ये कर चुकाते हैं, इसलिए कम आय वाले समूहों द्वारा चुकाए जाने वाले करों का अनुपात बढ़ गया है. रॉय का कहना है कि इससे केवल अमीर लोगों की खपत बढ़ेगी, "आम आदमी" की खपत पर कोई असर नहीं पड़ेगा. उन्होंने कहा कि करों में यह बदलाव केवल धनी लोगों को लाभ पहुंचाने के लिए किया गया है, जबकि गरीबों पर कर का बोझ बढ़ गया है.
लक्षित वर्गों की तरफ खर्च नहीं
द हिंदू में दीपा सिन्हा का कहना है कि सोशल सेक्टर में सरकार का ध्यान कम है. बजट भाषण में ‘विकसित भारत’ के छह सिद्धांतों का उल्लेख है: शून्य-गरीबी, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, व्यापक स्वास्थ्य सेवा, सार्थक रोजगार, आर्थिक गतिविधियों में महिलाओं का समावेश और किसानों का कल्याण. इसके बाद 10 व्यापक क्षेत्र हैं जिनमें प्रस्तावित विकास उपाय फैले हुए हैं. हालांकि, बजट के आंकड़े बताते हैं कि इन उपायों को पर्याप्त आवंटन द्वारा समर्थित नहीं किया गया है. यह निराशाजनक है क्योंकि न केवल आर्थिक मंदी बल्कि खपत मांग में गिरावट को भी व्यापक रूप से स्वीकार किया गया है. शिक्षाविद, उद्योग और नागरिक समाज सभी गरीबों, निम्न वर्गों और मध्यम वर्ग की आमदनी बढ़ाने के लिए मांग से जुड़े उपायों की सिफारिश कर रहे हैं.
रणनीति पर काम करने वाले कम हैं
बिजनेस स्टैंडर्ड में अजय शाह ने रणनीति के स्तर पर भारत की चुनौतियों को रेखांकित किया है. भारत में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) को मापने में कई कठिनाइयाँ हैं, फिर भी 2024-25 में अनुमानित भारतीय जीडीपी — लगभग 325 ट्रिलियन रुपये — शायद सही के आसपास है. एक समय था जब 10,000 करोड़ रुपये का एक नया कार्यक्रम शुरू करना बहुत बड़ी बात थी. लेकिन आज, यह शायद जीडीपी का 0.03 प्रतिशत है. केंद्र सरकार की राजस्व प्राप्तियां जीडीपी का लगभग 10 प्रतिशत हैं. अर्थव्यवस्था के आकार के मुकाबले केंद्र सरकार की कराधान और व्यय की शक्ति कम है. बजट भाषण के अधिकांश पैराग्राफ के आसपास हम एक निश्चित राजनीतिक तर्क देख सकते हैं, लेकिन आर्थिक नीति को इन छोटे-मोटे चालों से अधिक की आवश्यकता है. परियोजनाओं और कार्यक्रमों पर जोर देने का आर्थिक विकास पैदा करने में सीमित प्रभाव है; जो मायने रखता है वह उन सभी तरीकों का निवारण करना है जिनमें भारतीय राज्य निजी व्यक्तियों पर दबाव डालता है, जहाँ डर पैदा किया गया है जिससे निजी व्यक्ति सतर्क हो गए हैं. नीति निर्माण में नेतृत्व संसाधनों की भी सीमाएँ हैं. नेतृत्व रणनीतिक रूप से सोचने में निहित है. यह दुनिया के बारे में स्थितिजन्य जागरूकता विकसित करने, दुनिया और अपने संगठन का विश्लेषण करने, अपना मन बदलने और इस तर्क के जवाब में संगठन को संशोधित करने की गतिविधि है. केंद्र सरकार में ऐसे व्यक्तियों की संख्या जो ये भूमिकाएँ निभाते हैं, अत्यंत कम है. भारतीय राज्य की अधिकांश गतिविधि निष्पादन-उन्मुख है; रणनीतिक सोच करने की क्षमता कम है. बजट भाषण में भरी जाने वाली छोटी-मोटी चालें छोटे नेतृत्व संवर्ग पर संज्ञानात्मक बोझ डालती हैं. वे रणनीतिक सोच के लिए उपलब्ध समय और संसाधनों को कम करते हैं.
कर्नाटक ने मरणासन्न मरीजों को “मृत्यु का अधिकार” दिया
कर्नाटक सरकार ने मरीजों को सम्मानजनक मृत्यु का अधिकार देने के लिए राज्य के अस्पतालों में मेडिकल बोर्ड गठित करने का आदेश पारित किया है, ताकि गरिमापूर्ण मृत्यु को आसान बनाया जा सके. यह कदम 2023 में सुप्रीम कोर्ट के उस निर्णय के बाद उठाया गया है, जिसमें संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार को सम्मानजनक मृत्यु के अधिकार में शामिल किया गया था. कर्नाटक के स्वास्थ्य मंत्री दिनेश गुंडू राव ने कहा कि इससे उन लोगों को अत्यधिक लाभ होगा जो असाध्य रोगों से ग्रस्त हैं और जिनके ठीक होने की कोई उम्मीद नहीं है, या जो लगातार अचेतन अवस्था में हैं और जहां मरीज को जीवन रक्षक उपचार से लाभ नहीं हो रहा है. बहरहाल, कर्नाटक मरणासन्न मरीजों को सम्मानजनक मृत्यु का अधिकार देने वाला देश का पहला राज्य बन गया है.
ट्रम्प का टैरिफ वॉर
कनाडा, मैक्सिको और चीन की जवाबी कार्रवाई
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा व्यापार शुल्क लगाने की घोषणा के बाद, कनाडा, मैक्सिको और चीन ने भी जवाबी कार्रवाई शुरू कर दी है. ट्रम्प ने शनिवार को एक आदेश दिया, जिसके तहत कनाडा और मैक्सिको से आने वाले सामान पर 25% और चीन से आने वाले सामान पर 10% शुल्क लगाया गया है. ट्रम्प का यह कदम उनके उन आरोपों के बाद आया है, जिनमें उन्होंने कहा था कि ये देश अमेरिका में अवैध अप्रवासियों और ड्रग्स के प्रवाह को रोकने में विफल रहे हैं.
कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने कहा कि उनका देश अमेरिका से आने वाले 155 बिलियन कनाडाई डॉलर के सामान पर 25% का जवाबी शुल्क लगाएगा. वहीं, मैक्सिको की राष्ट्रपति क्लाउडिया शिनबाम ने भी जवाबी कार्रवाई की बात कही है. चीन ने भी ट्रम्प के लगाए गए शुल्कों का जवाब देने की बात कही है, लेकिन उसने अभी तक कोई नया शुल्क घोषित नहीं किया है.
कनाडा के ऊर्जा आयात, जिसमें तेल और बिजली शामिल हैं, पर 25% का पूरा शुल्क नहीं लगाया जाएगा और उन पर 10% शुल्क लगेगा. व्हाइट हाउस के अधिकारियों ने कहा कि यह कदम गैसोलीन और घरेलू हीटिंग तेल की कीमतों पर दबाव कम करने के लिए उठाया गया है.
ट्रम्प के इन कदमों से वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं में बदलाव आने की संभावना है. अर्थशास्त्रियों और व्यापार समूहों ने चेतावनी दी है कि इन शुल्कों से उपभोक्ताओं के लिए कीमतें बढ़ेंगी और वैश्विक व्यापार में कमी आएगी.
अमेरिकी कंपनियों ने भी इन शुल्कों पर चिंता व्यक्त की है. ऑटोमोबाइल कंपनियों जैसे जनरल मोटर्स, फोर्ड और स्टेलेंटिस ने कहा है कि इन शुल्कों से उनके संचालन पर बुरा असर पड़ेगा.
अमेरिकी अधिकारियों ने कहा है कि इन शुल्कों को लगाने का उद्देश्य अमेरिका में अवैध अप्रवासियों और ड्रग्स के प्रवाह को रोकना है. हालांकि, कनाडा और मैक्सिको ने इन आरोपों को खारिज कर दिया है. मैक्सिको ने कहा है कि अमेरिका को अपने देश में ड्रग्स की मांग और उपयोग को नियंत्रित करना चाहिए.
कनाडा के प्रधानमंत्री ट्रूडो ने अमेरिका के साथ अपने देश की लंबी साझेदारी का हवाला देते हुए कहा कि दोनों देशों ने द्वितीय विश्व युद्ध, कोरियाई युद्ध और अफगानिस्तान में साथ मिलकर लड़ाई लड़ी है.
चीन ने अमेरिका से बातचीत करने की अपील की है. चीन ने कहा है कि वह इस मामले को विश्व व्यापार संगठन (डबल्यूटीओ) में भी ले जाएगा. लेकिन चीन ने जवाबी शुल्क लगाने पर अभी कोई फैसला नहीं लिया है. जानकारों का मानना है कि चीन अपनी अर्थव्यवस्था को हुए नुकसान को बचाने के लिए धीरे-धीरे प्रतिक्रिया देगा.
ट्रम्प के टैरिफ वॉर का असर क्या होगा?
'द गार्डियन' के लेख के अनुसार, डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा प्रस्तावित टैरिफ नीतियाँ अमेरिका और वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए गंभीर जोखिम पैदा कर सकती हैं. अधिकांश अर्थशास्त्री चेतावनी दे रहे हैं कि ये टैरिफ महंगाई बढ़ाएंगे, आर्थिक विकास धीमा करेंगे, और बेरोजगारी का कारण बनेंगे. नोबेल विजेता जोसेफ स्टिग्लिट्ज़ के अनुसार, टैरिफ का असर अमेरिकी उपभोक्ताओं पर पड़ेगा, क्योंकि आयातित सामान महंगे होंगे. साथ ही, अन्य देश प्रतिशोधी टैरिफ लगाकर अमेरिकी निर्यात को नुकसान पहुँचा सकते हैं.
ट्रम्प ने कनाडा-मैक्सिको पर 25% और चीन पर 10-60% टैरिफ की घोषणा की है. विशेषज्ञों का मानना है कि इससे ऑटो उद्योग को भारी नुकसान होगा. कनाडाई अर्थशास्त्री जिम स्टैनफोर्ड के अनुसार, टैरिफ से अमेरिकी कारों की कीमतें बढ़ेंगी, जिसका बोझ उपभोक्ताओं पर पड़ेगा. पीटरसन इंस्टीट्यूट के मार्कस नोलैंड ने चेतावनी दी कि टैरिफ से उत्पादन लागत बढ़ेगी और औद्योगिक दक्षता घटेगी.
पिछले अनुभवों के आधार पर, चीन द्वारा अमेरिकी कृषि उत्पादों पर प्रतिबंध लगाने से किसानों को भारी नुकसान हुआ था. नई टैरिफ नीति से यह संकट फिर उभर सकता है. इसके अलावा, कॉर्नेल यूनिवर्सिटी के ईश्वर प्रसाद ने बताया कि टैरिफ से डॉलर मजबूत होगा, जिससे अमेरिकी निर्यात महंगा होगा और वैश्विक बाजार में प्रतिस्पर्धा कमजोर होगी.
अर्थशास्त्रियों का मानना है कि ट्रम्प की टैरिफ नीति आत्मघाती साबित होगी, जिससे अमेरिका ही नहीं, पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था प्रभावित होगी.
विश्लेषण
आकार पटेल : मोदी के असली मास्टर स्ट्रोक, एक लगा, दूसरा चूका
ऐसा क्यों है कि अर्थ व्यवस्था पर मोहभंग के बावज़ूद पनगढ़िया और उनकी तरह के लोग अभी भी प्रधानमंत्री से अभिभूत रहते हैं?
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दो मुख्य एजेंडे हैं, जिन्हें वे वर्षों से आगे बढ़ा रहे हैं: पहला है, 2047 तक भारत को विकसित राष्ट्र बनाना. अमेरिका और चीन की तरह एक शक्तिशाली, धनवान देश. पर इस लक्ष्य का कोई ठोस रोडमैप या सिद्धांत नहीं है. मोदी इसे पूरा करना चाहते हैं, मगर उन्हें खुद नहीं पता कि कैसे. यह अनिश्चितता शुरू से ही रही है.
इस बात को उनके करीबी समझते हैं, इसलिए आम दिनों में (जब अर्थव्यवस्था सुस्त होती है) चुप रहते हैं. लेकिन थोड़ी सी तेजी आते ही "दुनिया की सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्था" का नारा लगाने लगते हैं. इसमें नेहरू और उनकी नीतियों को कोसना भी शामिल होता है, हालाँकि नेहरू ने कभी नोटबंदी (2016) जैसा फैसला लेकर गरीबों को उजाड़ा नहीं, जिसने रातों-रात अर्थव्यवस्था से 86% नकदी गायब कर दी.
मार्च 2020 में कोविड आने से पहले लगातार 9 तिमाहियों तक जीडीपी विकास दर गिरती रही. सरकार ने इसे स्वीकार नहीं किया, क्योंकि इसका मतलब होता कि उनके पास कोई योजना नहीं है. कोविड के बाद जब अर्थव्यवस्था ने संभाला, तो फिर प्रशंसा के गीत गूंजने लगे. अब फिर मंदी की चर्चा है, तो ये आवाज़ें गायब हैं.
इस मोर्चे पर पढ़े लिखे लोगों में मोदी का प्रमुख समर्थक कोलंबिया यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्री अरविंद पनगढ़िया रहे. उन्हें लगा कि मोदी भी उनकी ही तरह "मुक्त बाजार" के हिमायती हैं. पर 2017 में नीति आयोग के उपाध्यक्ष का पद (अध्यक्ष मोदी हैं) छोड़कर अमेरिका लौट गये और तब से सरकार की "संरक्षणवादी" नीतियों (जैसे टायर, टीवी पर शुल्क) की आलोचना करते रहे हैं. उनका मानना है कि 2020 के आत्मनिर्भर भारत के नारे ने 1991 के आर्थिक सुधारों की कामयाबियों का बंटाधार कर दिया है. 'इस नीति ने छह वर्षों में क्या हासिल किया है?' उन्होंने आत्मनिर्भर भारत पर सवाल उठाते हुए पूछा. पनगढ़िया इस दलील के लिए मिसाल देते हैं, कि 2013-14 में इलेक्ट्रॉनिक्स आयात 32.4 बिलियन डॉलर का था, जो 2018-19 में 55.6 बिलियन डॉलर हो गया.निर्यात मात्र $7.6 बिलियन से $8.9 बिलियन ही पहुँचा.मोबाइल असेंबली के छोटे उद्योग खुले, पर कोई वैश्विक स्तर का निर्यात केंद्र नहीं बना. मतलब आत्मनिर्भर भारत के नाम पर जो भी कुछ हुआ, वह आत्मनिर्भरता की तरफ तो नहीं ही ले जा रहा था.
बावजूद इसके, पनगढ़िया 2021 के बजट को "माइंड-ब्लोइंग" बताते हैं और मोदी में आस्था रखते हैं.जबकि असलियत यही है कि मोदी के पास आर्थिक रणनीति कभी थी ही नहीं. पनगढ़िया जैसे लोगों ने खुद ही मोदी में अपनी विचारधारा का प्रतिबिंब देख लिया.
तो ऐसा क्यों है कि पनगढ़िया और उनकी तरह के लोग अभी भी प्रधानमंत्री से अभिभूत रहते हैं? उसकी वजह वह दूसरा इरादा है, जिसको लेकर प्रधानमंत्री पूरी तरह प्रतिबद्ध हैं. और वह है भारत का संवैधानिक बहुलतावाद खत्म कर देना और भारत को एक बहुसंख्यक राष्ट्र में बदलना, जहाँ धार्मिक तौर पर अल्पसंख्यक दूसरे दर्जे के नागरिकों की तरह रहने के लिए मजबूर किये जाएंगे.
अर्थव्यवस्था की असफलता के ठीक विपरीत, यह एक खासा कामयाब प्रोग्राम रहा है. इसके नतीज़े हमारे सामने हैं और भले ही आप प्रधानमंत्री के साथ हों या खिलाफ, इस मोर्चे पर उनकी कामयाबी से इंकार नहीं किया जा सकता.
भारतीय जनता पार्टी ने दरअसल अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव, उनका बहिष्कार, शोषण और उत्पीड़न को वैध बना दिया है. मुस्लिम क्या खाएँ, क्या पहनें, कहां रहें, कहां काम करें, किससे शादी करें, कैसे तलाक लें, कितनी नुमाइंदगी उन्हें मिले अब इतनी रोजमर्रा की बात हो चुकी है, कि अब वे सुर्खियां नहीं बनतीं.
यह भारत की राजनीति का इतना अभिन्न हिस्सा बन गया है कि इसमें बदलाव की कल्पना करना मुश्किल है, कम से कम मध्यम अवधि में या पंद्रह एक सालों में. इस परियोजना के लिए, अर्थव्यवस्था के विपरीत, मोदी के पास एक स्पष्ट मार्ग है - और उनके दरबार में वे लोग बने रहेंगे जो कहीं और उनकी महानता के संकेतों की तलाश अर्थव्यवस्था जैसी चीज़ों में करते रहते हैं.
लेखक स्तंभकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं.
जलवायु परिवर्तन
मौसम लायेगा मज़दूरों का महापलायन
'आर्टिकल 14' की एक रिपोर्ट कहती है कि जलवायु परिवर्तन के कारण भारत में लाखों लोगों के विस्थापित होने की संभावना है, लेकिन इसके लिए पर्याप्त योजना या बजट का अभाव दिखाई देता है. अनुमान है कि साल 2050 तक लगभग 4.5 करोड़ लोग जलवायु आपदाओं के कारण अपने घरों से पलायन करने पर मजबूर होंगे, जो वर्तमान में चरम मौसम घटनाओं से विस्थापित लोगों की संख्या से तीन गुना अधिक है. "स्टेट ऑफ इंडिया'स एनवायरनमेंट-2022" रिपोर्ट के अनुसार, 2020-2021 में भारत में 30 लाख से अधिक लोग जलवायु परिवर्तन के कारण अपने घर छोड़ने पर मजबूर हुए थे. जलवायु परिवर्तन के प्रभावों में बढ़ती गर्मी, समुद्र स्तर में वृद्धि और अनियमित मानसून शामिल हैं, जो कृषि, जल संसाधन और जन स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहे हैं. मसलन साल 2019 में भारत के कई हिस्सों में तापमान 50°C तक पहुंच गया, जिससे कई लोगों की मृत्यु हुई. इसके अलावा, समुद्र स्तर में वृद्धि के कारण मुंबई, कोलकाता, कटक, और कोच्चि जैसे प्रमुख शहरों के बड़े हिस्से 2030 तक ज्वार स्तर से नीचे आ सकते हैं. इन गंभीर खतरों के बावजूद, भारत में जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए पर्याप्त योजना और बजट का अभाव है. हाल ही में संपन्न COP29 शिखर सम्मेलन में विकासशील देशों को जलवायु अनुकूलन के लिए अपर्याप्त समर्थन मिला, जिसके कारण भारत के प्रतिनिधि ने आलोचना तक की थी. रिपोर्ट कहती है कि भारत की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के बावजूद, जलवायु परिवर्तन और आबादी की चुनौतियाँ इसकी प्रगति में बाधा डाल सकती हैं.
रोजगार
मनरेगा : वक़्त पर पैसा, मज़दूरी बढ़ाने की दरकार
श्रीहरि पालयथ ने 'इंडिया स्पेंड' के लिए अपने लेख में बताया है कि महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत सिर्फ कार्य दिवसों की संख्या बढ़ाना मजदूरों के संकट को खत्म करने के लिए काफी नहीं है. साल 2018-19 से औसतन केवल 7.4% परिवारों ने 100 दिनों का कार्य पूरा किया है, जबकि 2023-24 में एक परिवार ने औसतन 52 दिनों का कार्य किया, जो 2012-13 के बाद से सबसे अधिक है. इसके अलावा, मजदूरी की दरें कम हैं और भुगतान में देरी होती है, जिससे श्रमिकों को कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है. मसलन ओडिशा में जहां प्रवासन प्रभावित क्षेत्रों में 300 दिनों का कार्य प्रदान किया जाता है, वहां के सबसे कमजोर परिवार भी मजदूरी में देरी और कम आय के कारण लाभ नहीं उठा पा रहे हैं. अर्थशास्त्री ज्यां ड्रेज़ के अनुसार कार्य दिवसों की संख्या बढ़ाने से अधिक महत्वपूर्ण है मनरेगा मजदूरी दरों में वृद्धि करना, जिससे सभी श्रमिकों को लाभ होगा और कार्यक्रम के प्रति उनकी रुचि बढ़ेगी. इसके अतिरिक्त, आधार-आधारित भुगतान प्रणाली (एबीपीएस) और राष्ट्रीय मोबाइल निगरानी प्रणाली (एनएमएमएस) जैसे तकनीकी हस्तक्षेपों ने श्रमिकों के लिए नई चुनौतियाँ पैदा की हैं, विशेष रूप से दूरस्थ क्षेत्रों में जहां नेटवर्क की समस्याएं हैं.
वित्तीय बाधाएँ : मनरेगा एक मांग-आधारित योजना है, लेकिन बजटीय सीमाओं के कारण इसकी प्रभावशीलता प्रभावित होती है. अपर्याप्त धनराशि के कारण मजदूरी भुगतान में देरी होती है, जिससे श्रमिकों का विश्वास कम होता है.
मजदूरी दर : वर्तमान में मनरेगा के तहत मजदूरी दरें कम हैं. उद्योग निकायों ने दैनिक मजदूरी को ₹267 से बढ़ाकर ₹375 करने की सिफारिश की है, जिसके लिए अतिरिक्त ₹42,000 करोड़ की आवश्यकता होगी.
कार्य दिवसों की संख्या : हालांकि योजना प्रति परिवार 100 दिनों के कार्य की गारंटी देती है, लेकिन औसतन केवल 7% परिवार ही पूरे 100 दिनों का कार्य प्राप्त कर पाते हैं. इसलिए, केवल कार्य दिवसों की संख्या बढ़ाना पर्याप्त नहीं है; अन्य सुधारों की भी आवश्यकता है.
नकली जॉब कार्ड : नकली जॉब कार्ड, काल्पनिक नामों का समावेश, और जॉब कार्ड में प्रविष्टियों में देरी जैसी समस्याएँ भी सामने आई हैं, जो योजना की पारदर्शिता और प्रभावशीलता को प्रभावित करती हैं. नकली जॉब कार्ड और अन्य अनियमितताओं को रोकने के लिए सख्त निगरानी और पारदर्शिता उपायों को लागू किया जाना चाहिए.
बजट में वृद्धि : योजना के प्रभावी कार्यान्वयन के लिए पर्याप्त धनराशि सुनिश्चित की जानी चाहिए. मजदूरी दरों को बढ़ाकर श्रमिकों की आर्थिक स्थिति में सुधार किया जा सकता है.
छलांगे मारता हुआ साइबर ठगी का संसार
2019 में हर दिन दर्ज होने वाली 71 साइबर अपराध शिकायतों की संख्या 2024 में 87 गुना बढ़कर 6,175 शिकायतें प्रतिदिन हो गई है. ऐसा गृह मंत्रालय के अधीन काम कर रहे भारतीय साइबर अपराध समन्वय केंद्र का डेटा कहता है. भारतीयों ने पिछले साल केवल नौ महीनों में साइबर धोखाधड़ी के कारण ₹11,333 करोड़ ($1.13 अरब) गंवाए हैं. हालांकि यह आंकड़ा चौंकाने वाला है, लेकिन यह वैश्विक साइबर धोखाधड़ी उद्योग की अनुमानित वार्षिक कमाई $40 अरब (₹3.33 लाख करोड़) का केवल एक छोटा सा हिस्सा भर है. इसी पर 'स्क्रॉल' ने एक श्रृंखला प्रकाशित की है, जो भारत में साइबर धोखाधड़ी की महामारी और इसके वैश्विक बहु-अरब डॉलर के उद्योग के साथ संबंधों की पड़ताल करती है. यह श्रृंखला ऑनलाइन धोखाधड़ी उद्योग के उदय और विकास के साथ-साथ भारतीयों के इसके लक्षित बनने के तरीकों का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करती है. इस श्रृंखला में बताया गया है कि कैसे दक्षिण-पूर्व एशिया में स्थित 'स्कैम सेंटर्स' भारतीयों को नौकरी के झांसे में फंसाकर साइबर अपराधों में शामिल करते हैं. इन केंद्रों में फंसे भारतीयों को अन्य देशों के लोगों को ऑनलाइन धोखाधड़ी के माध्यम से ठगने के लिए मजबूर किया जाता है. भारत सरकार के आंकड़ों के अनुसार आने वाले वर्ष में भारतीयों को साइबर धोखाधड़ी के कारण लगभग 1.2 खरब रुपये का नुकसान हो सकता है.
जर्मनी फिर झुकता हुआ दक्षिण पंथ की तरफ
जर्मनी के पहले से ही नाजुक सियासी संतुलन में तब राजनीतिक भूचाल आ गया जब एक बिल पास करवाने के लिए मुख्य सत्ताधारी पार्टी को दक्षिणपंथी पार्टी अल्टरनेटिव फॉर जर्मनी (एएफ़डी) का समर्थन लेना पड़ा. संसद (बुंडेसटैग) में हुए एक विवादास्पद मतदान में दक्षिणपंथी पार्टी अल्टरनेटिव फॉर जर्मनी (एएफ़डी) के समर्थन से सत्ताधारी सीडीयू/सीएसयू गठबंधन ने सख्त आप्रवासन नीति को मंजूरी दी. अभी तक एएफडी से सब दूरियां बना कर रखते थे. यह वही पार्टी है जिसे इलोन मस्क समर्थन दे रहे हैं. हाल ही में सरकार गिरने के बाद जर्मनी में 23 फरवरी को चुनाव हैं और प्रवासियों को लेकर राष्ट्रीय नीति सबसे बड़ा मसला बना हुआ है.
सीडीयू नेता फ्रेडरिक मेर्ज़ ने जर्मनी की सीमाओं पर कंट्रोल बढ़ाने और अवैध प्रवासियों को वापस भेजने का प्रस्ताव रखा.पक्ष में 348 वोट आए, विरोध में 345. ऐसा एएफ़डी और फ्री डेमोक्रेटिक पार्टी (एफडीपी) के समर्थन से मुमकिन हुआ. एएफ्डी ने इसे "युगांतकारी मोड़" (Zeitenwende) बताया.विपक्षी एसपीडी और ग्रीन्स ने "लोकतंत्र के लिए अंधेरा दिन" करार दिया. चांसलर ओलाफ़ शोल्ज़ ने मेर्ज़ पर "दक्षिणपंथ से समझौता" करने का आरोप लगाया. सीडीयू चुनावी रैली में सबसे आगे है, लेकिन उसे गठबंधन की जरूरत होगी. एएफ़डी दूसरे नंबर पर है, पर मुख्यधारा की पार्टियाँ उसके साथ मिलने से इनकार करती हैं.
जर्मनी के पड़ोसी देश इस घटना से बेचैन हैं. यदि जर्मनी ने यूरोपीय कानूनों को नजरअंदाज किया, तो यूरोपीय संघ में तनाव बढ़ सकता है. मेर्ज़ का यह कदम चुनावी रणनीति का हिस्सा लगता है. उन्हें उम्मीद है कि सख्त आप्रवासन नीति से अफ़डी के वोटर सीडीयू की ओर आएँगे. परंतु, यह जोखिम भरा है-ऐतिहासिक रूप से दक्षिणपंथ से हाथ मिलाने वाली पार्टियों को मध्यमार्गी वोटरों का नुकसान होता आया है. यह मामला सिर्फ जर्मनी तक सीमित नहीं. पूरे यूरोप में सवाल उठ रहा है: क्या दक्षिणपंथी ताकतों को मुख्यधारा में शामिल करने से उनका प्रभाव कम होगा या बढ़ेगा? जर्मनी का यह प्रयोग इस सवाल का जवाब बन सकता है.
सूडान के बाजार में गोलियों से भून दिए दसियों लोग : 'सूडान ट्रिब्यून' की खबर है कि सूडान के ओमदुरमन शहर में एक सब्जी बाजार पर गोलाबारी और हवाई हमलों में कम से कम 56 लोगों की मौत हो गई है. सूडान के स्वास्थ्य मंत्रालय ने बताया कि शनिवार को हुए इस हमले में कम से कम 158 लोग घायल भी हुए हैं. इस हमले के लिए अर्धसैनिक बल रैपिड सपोर्ट फोर्सेज़ (RSF) को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है. हालांकि, प्रत्यक्षदर्शियों और चिकित्सा सूत्रों का कहना है कि मृतकों की संख्या 100 तक पहुंच सकती है और कुछ पीड़ित अस्पतालों में विकृत हालत में पहुंचे हैं.
इजरायली जेलों में फिलिस्तीनियों को मिली यातना : हाल ही में इज़राइल और हमास के बीच हुए संघर्षविराम समझौते के बाद इज़राइल ने 183 फिलिस्तीनी कैदियों को रिहा किया है. रिहाई के बाद कई कैदियों ने इज़राइली जेलों में अपने समय के दौरान गंभीर यातना, भुखमरी और चिकित्सा उपेक्षा का सामना करने का दावा किया है. इधर, वेस्ट बैंक के जेनिन शहर पर लगातार इजरायल की सेनाओं की दादागिरी जारी है. जेनिन में इजरायली हवाई हमलों में एक किशोर सहित पांच लोग मारे गए हैं. पहले हमले में, एक इजरायली ड्रोन ने जेनिन शहर की एक सड़क पर लोगों के समूह को निशाना बनाया. दूसरा और तीसरा हमला कुछ ही मिनटों बाद दो अलग-अलग स्थानों पर हुआ, जैसा कि जेनिन के गवर्नर कमल अबू अल-रुब ने बताया.इधर, ‘अलजजीरा’ की खबर है कि प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू अमेरिका दौरे पर गाजा-इजरायल संघर्ष विराम के दूसरे चरण की शर्तों पर चर्चा करेंगे, जिसमें शेष बंधकों की रिहाई और गाजा से इज़राइली सेना की वापसी के मुद्दे शामिल होंगे. कहा जा रहा है कि इन वार्ताओं का उद्देश्य दोनों पक्षों के बीच स्थायी शांति स्थापित करना है.
चलते- चलते
सुरंगों में खुलते जंग, इतिहास और शहर के रहस्य
लंदन के केंद्र में लगभग 30 मीटर (98 फीट) नीचे बसे एक मील लंबे सुरंग नेटवर्क को शहर का नया चमकदार पर्यटक आकर्षण बनाया जा रहा है. इस परियोजना के लिए 149 मिलियन डॉलर के निवेश वाली कंपनी को योजना की मंजूरी मिल चुकी है. इतिहास से जुड़ी ये सुरंगें 1940 के दशक में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान बनाई गई थीं, ताकि लंदनवासियों को जर्मनी की ब्लिट्ज बमबारी से बचाया जा सके. युद्ध के बाद, इन्हें ब्रिटेन की गुप्त एजेंसी स्पेशल ऑपरेशन्स एक्जीक्यूटिव (एमआई 6 की एक शाखा) का मुख्यालय बना दिया गया. यही संगठन जेम्स बॉन्ड के प्रसिद्ध क्यू ब्रांच की प्रेरणा भी रहा! लंदन टनल्स के सीईओ एंगस मरे के अनुसार, इन सुरंगों को "ब्लिट्ज स्मारक" के रूप में विकसित किया जाएगा, जो एक संग्रहालय, प्रदर्शनी और मनोरंजन क्षेत्र का मिश्रण होगा. पर्यटक 2027 के अंत या 2028 की शुरुआत तक इन्हें देख सकेंगे. किंग्सवे एक्सचेंज टनल का इतिहास युद्धकालीन सुरक्षा और जासूसी से जुड़ा है. नए स्वरूप में यहाँ इंटरएक्टिव प्रदर्शनियाँ और ऐतिहासिक अवशेष देखने को मिलेंगे. डाउन स्ट्रीट जैसी बंद मेट्रो लाइनों के टूर भी लोकप्रिय हैं, जो शहर के गुप्त इतिहास को उजागर करते हैं.
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